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प्रत्येक वर्ष सितम्बर माह हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिसमें अधिकतर सभी सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थान हिन्दी पखवाड़ा का आयोजन करते हैं। इस प्रकार के आयोजनों का मुख्य उदेदश्य मरती हुई हिन्दी भाषा को पुर्नजीवन प्रदान करना है। बहुल संख्या में प्रतिभागी जो हिन्दी का सामान्य एवं उच्चतम ज्ञान रखते हैं, इन आयोजनों में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। किन्तु अब प्रश्न यहां पर उठता है कि जिन लोगों का हिन्दी सामान्य ज्ञान ही निम्न स्तर का होता है, वह कितनी संख्या में हिन्दी पखवारे में भाग लेते हैं? यह ऐसा बहुत बड़ा वर्ग है जो हिन्दी दिवस में आयोजित प्रतिस्पर्थाओं में भाग ही नहीं लेता। जिसका कारण स्पष्ट है, उनकी सामान्य हिन्दी का अत्यन्त ही निम्न स्तर का होना। जिसमें अधिकतर उन्हीं संस्थानों के उच्च श्रेणी के अधिकारीगण ही आते हैं, जिन्होंने इन पखवाड़ों का आयोजन करवाया होता है।
हिन्दी दिवस या हिन्दी पखवाड़ों के आयोजन में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसे गलत कहा जा सके। बस इतना अवश्य ही कहा जा सकता है, हिन्दी पखवाड़ों का आयोजन जिन उददेश्यों हेतु किया जा रहा है, उसका परिणाम शत-प्रतिशत बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि यदि विभिन्न संस्थानों में होने वाले हिन्दी पखवाड़े में भाग लेने वाले प्रतिस्पर्धियों और उनके परिणामों का आंकलन करेंगे तब यही पायेंगे कि प्रत्येक वर्ष 98 प्रतिशत प्रतिस्पर्धी वही गत वर्ष वाले ही होते हैं और प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय आने वाले भी वही प्रतिस्पर्धी ही बाजी मार जाते हैं, क्योंकि इस प्रकार की प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने से प्रतिस्पर्धी प्रत्येक बार अपने हिन्दी ज्ञान में पहले से एक पायदान और ऊपर चढ़ जाता है। यह ज्ञानवृद्धि मात्र अल्प संख्या में कुछ ही लोगों को होना हिन्दी पखवाड़े के मूल उददेश्य को सार्थक नहीं बनाता।
हिन्दी पखवाड़े की सार्थकता तभी संभव है जब हिन्दी का अल्प ज्ञान रखने वाले लोग भी हिन्दी दिवस में आयोजित कार्यक्रमों में समिमलित हों और उनमें होने वाली प्रतिस्पर्धाओं में भाग भी लें। बेशक वह उसमे कोई पुरस्कार जीत सकें या नहीं, इसका कोई महत्व नहीं, अपितु महत्व इस बात का अधिक है कि प्रत्येक बार जब भी वह हिन्दी दिवस की प्रतियोगिताओं में किसी विषय पर हिन्दी में लिखते, पढ़ते और बोलते हैं तब उनके हिन्दी वर्तनी संबंधी दोष तो दूर होते ही हैं और उसके साथ ही साथ वह हिन्दी ज्ञान के एक-एक पायदान ऊपर चढ़ते जाते हैं। जब तक हिन्दी न जानने वाले लोग और हिन्दी का अल्प ज्ञान रखने वाले लोगों की ज्ञान पिपासा नहीं जागती, उनमें कुछ सीखने और आत्मसम्मान का भाव नहीं जागता तब तक हिन्दी पखवाड़ा अधूरा-अधूरा ही रहेगा। फिर भी प्रत्येक वर्ष हिन्दी पखवाड़ों का आयोजन तो अवश्य किये ही जाते रहना चाहिए। ताकि कम से कम हिन्दी को हीन भावना से देखने वालों को कुछ और प्रतिस्पर्धियों को पूर्ण उत्साह से हिन्दी का प्रयोग करते हुए देखकर कुछ तो प्रेरणा मिल ही सके और जो हिन्दी का ज्ञान रखते हैं, पहले से और अधिक उत्कृष्ट हो निखर कर सोना बन सकें।
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