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सिख धर्म में, नाम सिमरन से आशय किसी शब्द की पुनरावृत्ति या भगवान का स्मरण करने के लिए संदर्भित करता है। सिमरन करने से मनुष्य का हदय निर्मल और चित्त पवित्र हो जाता है। श्री गुरू ग्रन्थ साहिब में अनेकों स्थान में सिमरन की महिमा की गर्इ है।
सिमर सिमर सिमर सुख पा-इ-आ (श्री गुरू ग्रन्थ साहिब पृ. 202)
सर्वप्रथम र्इश्वर स्मरण से साधक के मन में प्रभु इच्छा का स्वीकार भाव, समर्पण या मालिक के हुकुम में चलने की समर्थता उत्पन्न हो जाती है। जिससे व्यकित में विनम्रता, उच्च आध्यातिमक लाभ उत्पन्न होते हैं जो साधक को जीवन की कठिन से कठिन परिसिथतियों से जूझने का साहस देते हैं।
इसके पश्चात गुरबाणी में श्रवण (श्रुति) का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। श्रवण अर्थात सुनना। र्इश नाम जिसे साधक मौखिक एवं मानसिक रूप से जपता है, उन्हें वह समूह में अन्य साधकों के साथ श्रवण करता है जो सिमरन में मन को और अधिक बल प्रदान करती है। इस प्रकार अन्य श्रद्वालुओं के साथ र्इश्वर-वन्दना (सत्संग, कीर्तन) किया जाना उपयुक्त है और नाम सिमरन का ही एक सहायी अंग है।
स्मरण और श्रवण के पश्चात तीसरा स्तर ध्यान है। जिस प्रकार सिमरन में साधक मौखिक एवं मानसिक रूप से र्इश नाम का यंत्रवत जाप करता है जो धीरे-धीरे साधक के मन को एकाग्र कर उसे जप से अजप की ओर ले जाता है, तब सिमरन स्वयंमेव साधक के भीतर चलने लगता है।
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