Menu
blogid : 15302 postid : 683903

प्रेम ही र्इश्वर है

Voice of Soul
Voice of Soul
  • 69 Posts
  • 107 Comments

प्रेम ही र्इश्वर है, र्इश्वर ही प्रेम है, यह उकित धर्म का मूल है। मानव जीवन मात्र प्रेम की धुरी पर टिका हुआ है और प्रेम विश्वास के आधार पर ही संभव है। जहां विश्वास है वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है वस्तुत: वहीं जीवन भी है। जब सृषिट की रचना र्इश्वर ने की। समस्त जीव-जन्तु, पेड़-पौधे और मनुष्य को आदम-हव्वा के रूप में जीवित किया। तभी उसने स्वर्ग में एक ऐसे फल को भी उत्पन्न किया जिसे उसने आदम-हव्वा को सेवन के लिए वर्जित किया। एक सर्प द्वारा हव्वा (स्त्री) को बहकाने पर उसने स्वयं और अपने साथी आदम को वह फल खाने को प्रेरित किया। जिस कारण उनमें मसितष्क विकसित हुआ। जिससे र्इश्वर ने उन्हें धरती पर जीवन-मृत्यु के चक्र में छोड़ दिया। इस कथा में कितनी सत्यता है इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण इस कथा में उपसिथत संकेतों को समझने का है। र्इश्वर ने ही समस्त सृष्टि के साथ मनुष्य का निर्माण किया। वह वर्जित फल तर्क करने वाले मस्तिष्क को दर्शाता है जो सदा संदेह के बादलों में घिरा रहता है, विभिन्न प्रकार की वासनाओं और कमजोरियों को स्वयं उत्पन्न कर सम्पूर्ण मानव को दु:ख रूपी दलदल में डुबो देता है। वह सर्प जो स्त्री को फल सेवन हेतु प्रेरित करता है वह झूठ, बुरार्इ और शैतान का प्रतीक है। जो स्त्री को झूठ बोलकर बहकाता है कि इस फल मे ऐसा कुछ विशेष है जो तुम्हारा र्इश्वर नहीं चाहता कि तुम इसका सेवन करो अर्थात वह तुमसे द्वेष करता है और वह स्त्री लोभ का प्रतीक है जो असत्य को सत्य जान र्इश्वर पर अश्रद्धा कर वह करने को उत्सुक हो जाती है जो र्इश्वर को आज्ञा के विरूद्ध है। पुरूष मोह का प्रतीक है जो लोभ रूपी स्त्री के मोह में ग्रसित हो एकाएक उसके कृत्य में भागीदार होता है। फलस्वरूप दोनों जीवन-मृत्यु के चक्र में डाल दिये जाते हैं।
मनुष्य एकमात्र ऐसा प्राणी है जो उचित-अनुचित में भेद करने के कारण अन्य जीवों से सर्वथा भिन्न हो गया और शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं के कारण वह मनुष्य ने अन्य सभी जीवों को अपने वश में किया। यह सब मनुष्य को र्इश्वर-इच्छा द्वारा प्राप्त हुआ जिसे उसने अपनी तर्कबुद्वि और असत्य रूपी सर्प के कारण कभी स्वीकार नहीं किया। जब कभी मनुष्य को थोड़ा सा भी सुख मिला उसे वह अपने द्वारा कृत मान गर्व करता। जब कभी उसे दुख मिलता तब र्इश्वर पर दोषारोपण कर स्वयं को प्रत्येक स्तर पर सही सिद्ध करने का प्रयास करता। जिस कारण मनुष्य सदा-सदा दु:ख और बीमारियों से घिरा रहा। प्रभु द्वारा प्रदत्त सुन्दर जीवन, उनके द्वारा दिये अमूल्य उपहार जो हवा, पानी, भोजन, बुद्धि के रूप में सदा से मिलते रहे, उसे सही प्रकार से प्रयोग न कर, असत्य रूपी सर्प का कहा मान चोरी, बेर्इमानी, हिंसा, लालच और अनेकों प्रकार के अन्य ऐसे कार्य करने लगा जिसके कारण यहां ऊंच-नीच, जात-पात, अमीरी और गरीबी के फासले बढ़ गये। जिसका श्रेय बुद्धिमान मनुष्य को जाता है, न की उस प्रभु परमेश्वर को। प्रभु परमेश्वर ने मनुष्य की ऐसी हालत देख फिर उस पर दया कर समय-समय पर अनेकों बार कर्इ बड़े महापुरूष भेजे जिन्होंने मानव को सही राह पर लाने के लिए उन्हें अपने भले कार्यों से, उपदेशों और बलिदान द्वारा समझाया कि वह वास्तव में कौन है, कहां से आया है और उसे अपने दुखों से किस प्रकार मुकित मिल सकती है।
पशिचम के यरूशेलम में सबसे पहले र्इसा मसीह अर्थात जीसस जब इस दुनियां में आये तब वहां चारों ओर झूठ का बोलबाला था। सामन्त वर्ग द्वारा गरीबों का शोषण, झूठ, बेर्इमानी, चोरी, हत्या अनेकों प्रकार की बुरार्इयां उस समय व्याप्त थी। तब जीसस जो यीशु के नाम से भी जाने जाते हैं, उन्होंने अपने व्यवहार और कार्यों द्वारा लोगों में विश्वास जगाया कि र्इश्वर वास्तव में मनुष्य का पिता है और वह हमसे बहुत प्रेम करता है। प्रेम ही र्इश्वर है और र्इश्वर ही प्रेम है यह उकित यीशु ने कही।
प्रेम और त्याग के सम्बन्ध में यीशु का वक्तव्य जो बार्इबिल में संकलित है कि
और वह मनिदर के भण्डार के सामने बैठकर देख रहा था, कि लोग मनिदर के भण्डार में किस प्रकार पैसे डालते हैं, और बहुत धनवानों ने बहुत कुछ डाला। इतने में एक कंगाल विधवा ने आकर दो दमडियां, जो एक अधेले के बराबर होती हैं, डाली। तब उस ने अपने चेलों को पास बुलाकर उन से कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि मनिदर के भण्डार में डालने वालों में से इस कंगाल विधवा ने सब से बढ़कर डाला है। क्योंकि सब ने अपने धन की बढ़ती में से डाला है, परन्तु इस ने अपनी घटी में से जो कुछ उसका था, अर्थात अपनी सारी जीविका डाल दी है। (मरकुस 12:41-44)

इसी प्रकार अन्य स्थान पर यीशु ने अपने शिष्यों से र्इश्वर से प्रेम और त्याग के संबंध में यह तब कहा जब वह सलीब पर चढ़ने वाले थे और उनके शिष्य उनके साथ आने को कह रहे थे।
तब यीशु ने अपने चेलों से कहा, यदि कोर्इ मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप का इन्कार करे और अपना क्रूस उठाए, और मेरे पीछे हो ले। क्योंकि जो कोर्इ अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा, और जो कोर्इ मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा। यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले में क्या देगा? मनुष्य का पुत्र अपने स्वर्गदूतों के साथ अपने पिता की महिमा में आएगा, और उस समय वह हर एक को उसके कामों के अनुसार प्रतिफल देगा। (मत्ती 16:24-27)

इसी प्रकार से प्रेम और त्याग के संबंध में श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहा गया है –
जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ।।
सिरु धरि तली गली मेरी आउ।।
इतु मारगि पैरु धरीजै।।
सिरु दीजै काणि न कीजै।।20।। गुरू गं्रथ साहिब पृ. 1412
अर्थात यदि तुम्हें र्इश्वर से प्रेम करने की चाह या इच्छा है तो अपना सिर हथेली पर रख कर आना (अपने प्राणों की चिन्ता छोड़कर आना।)। इस मार्ग पर कदम बढ़ाने के पश्चात अपना अहम (सिर) त्यागकर अन्य किसी की बातों (व्यंग्य) पर ध्यान मत देना।

मनुष्य के सुख का उपाय जिस प्रकार बार्इबिल में यीशु ने र्इश्वर पर पूर्ण श्रृद्धा, विश्वास और प्रेम को बताया है उसी प्रकार गुरू ग्रन्थ साहिब में मानव के दु:खों के अंत का उपाय उस र्इश्वर पर पूर्ण विश्वास कर उसके प्रत्येक कार्य को सहदय मानना अर्थात हुकुम में चलना बताया गया है। उसमें यह भी कहा गया है सृषिट में जो कुछ भी चल रहा है प्रत्येक उस कुल मालिक की आज्ञा से ही होता है।
जैसा के गुरूबाणी में जपुजी साहिब की दूसरी पउड़ी में स्पष्ट रूप से गुरू नानक देव जी ने कहा है-
हुकमी होवन आकार हुकमि न कहिया जार्इ।।
हुकमी होवन जीअ हुकमि मिलै वडियार्इ।।
हुकमी उत्तम नीच हुकमि लिखि दुख सुख पार्इअह।।
इकना हुकमी बखसीस इक हुकमि सदा भवाइअह।।
हुकमै अंदर सभ को बाहरि हुकमि न कोर्इ।।
नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोर्इ।।2।।
अर्थात इस पउड़ी में गुरू साहिब कह रहे हैं कि उस कुल मालिक परमेश्वर के हुकम (इच्छा) से ही सृषिट आकार लेती है जिसे कह पाना संभव नहीं। उसकी इच्छा से ही जीव-जन्तु उत्पन्न होते हैं और उसकी ही इच्छा के फलस्वरूप वडियार्इ (अच्छार्इ) प्राप्त होती है। उसकी इच्छा से ही व्यकित उत्तम या नीच होता है, उसकी इच्छा से ही मनुष्य को दुख और सुख की प्रापित होती है। उसकी इच्छा से प्रत्येक वस्तु प्राप्त होती है। सृषिट की प्रत्येक वस्तु उसकी इच्छा के भीतर ही आती है और कुछ भी उसकी इच्छा के बाहर नहीं है। जो भी इस बात को बूझ लेता है या फिर जान लेता है फिर उसमें कोर्इ हउमै या अहम शेष नहीं बचता।
र्इश्वर के हुकुम या इच्छा के अंतर्गत संसार की सभी घटनायें निहित हैं इस पर गुरू ग्रंथ साहिब में रामायण के राम-रावण युद्ध के उस समय का वर्णन आता है जब रावण पुत्र मेघनाथ द्वारा चलाये नागपाश से मूर्छित लक्ष्मण को देख राम दु:ख में थे।
राम झुरै दल मेलवै अंतरि बलु अधिकार।।
बंतर की सैना सेवीऐ मनि तनि जुझु अपारु।।
सीता लै गइआ दहसिरो लछमणु मूओ सरापि।।
नानक करता करणहारु करि वैखै थापि उथापि।।25।।
मन महि झूरै रामचंदु सीता लछमण जोगु।।
हणवंतरू अराधिआ आइआ करि संजोगु।।
भूला दैतु न समझर्इ तिनि प्रभ कीए काम।।
नानक वेपरवाहु सो किरतु न मिटर्इ राम।।26।। गुरू गं्रथ साहिब पृ. 1412

अर्थात जब राम चारों ओर से दुख से घिरे थे तब उन्हें उस र्इश्वर ने शकित दी। उन्हें वानरों की ऐसी सेना दी जो युद्ध हेतु अत्यन्त आतुर थी। रावण जो अत्यन्त बलशाली राजा था, सीता का हरण कर ले गया और लक्ष्मण को मूर्छित देख, राम अत्यन्त दुखपूर्ण सिथति में थे। उस समय वह करतापुरख (र्इश्वर) यह सब देख रहा था। उस समय रामचन्द्र मन ही मन पत्नी सीता और भार्इ लक्ष्मण के लिए अत्यन्त दुखी थे। उस समय जब राम ने हनुमान को पुकारा तब वह र्इश्वर कृपा द्वारा आये और लक्ष्मण की मूच्र्छा का उपचार संजीवनी बूटी के माध्यम से किया और यह सब जान ज्ञानी रावण तब भी न समझ सका कि यह सब उस प्रभु ने ही किया है। हे नानक! उस र्इश्वर जो स्वयंभू और निशिचंत है उसकी कृपा से श्री राम के समस्त दुख दूर हुए।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh