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काहू लै पाहन पूज धरयो सिर, काहू लै लिंग गरे लटकायो।। काहू लखिउ हरि अवाचि दिसा महि, काहू पछाह को सीस निवाइयो।। कोउ बुतान को पूजत है पसु, कोउ मृतान को पूजन धाइयो।। कूर क्रिया उरझयो सभ ही जग, श्री भगवान को भेद न पाइयो।।10।। सवईये पातशाही दसवीं
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यह शब्द सवईये से लिए गये हैं जो सिखों के 10वें गुरू श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने कहे हैं। गुरू गोबिन्द सिंह जी ऐसे एक गुरू हैं जिनकी बाणी श्री गुरू ग्रंथ साहिब में नहीं मिलती किन्तु उनकी बाणी श्री दसम ग्रंथ में मिलती है। सिक्खों द्वारा रोजाना किए जाने वाले नितनेम में श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी की बाणी भी मुख्य स्थान रखती है। जिससे सिक्खों को आध्यात्मिक शक्ति के साथ-साथ व्यवहारिक एवं वीरतापूर्ण शक्ति का उद्गम होता है। जब भी मैं कभी गुरू गोबिन्द सिंह जी की कोई भी बाणी पढ़ता हूं तब अंदर से कुछ ऐसा लगता है मानों उनके शब्द किसी तीर की भांति सीधे हदय में उतर रहे हों। आखिर गुरू गोबिन्द सिंह जी एक संत के साथ-साथ एक योद्धा भी थे। और एक ऐसा योद्धा जिनके अस्त्र-शस्त्र मात्र बाहरी शत्रुओं का ही नाश नहीं करते थे, अपितु उनके अपने प्यारे बच्चों के हदय को भेद कर उन्हें चिडि़यों से बाज बनाने की समर्थता रखते थे जो उस समय ही नहीं बल्कि अभी भी है। बस आवश्यकता है मात्र उनके शब्द या बाणी को दिल से पढ़कर समझने की। वाहेगुरू जी का खालसा, वाहेगुरू जी की फतेह।
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भावार्थ- इस शब्द में दसम गुरू श्री गुरू गोविन्द सिंह जी महाराज उन लोगों की तरफ इशारा करते हुए स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि हे भाई तुम क्यों किसी पाहन (पत्थर) को सिर पर रखकर, लिंग को गले में लटकाये घूम रहे हो अर्थात उसकी उपासना कर रहे हो। क्यों तुम बुत परस्ती कर रहे हो अर्थात पत्थर की मूर्तियों की उपासना कर रहे हो और क्यों तुम मृत लोगों की एवं कब्रों की उपासना में लगे हुए हो। जो स्वयं अब कुछ भी नहीं अर्थात झूठ और अज्ञान है। इन समस्त झूठी क्रियाओं में उलझकर समस्त संसार उस परम पिता परमात्मा, जिसका कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं, जो किसी काल में नहीं आता, जो स्वयंभू और सर्वशक्तिमान है, उसका भेद इनमें से कोई भी न पा सका।
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