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गुरू गोबिन्द सिंह जी का जन्म एक ऐसे समय पर हुआ, जब भारतवर्श में लगभग पांच सौ साल से इस्लामिक साम्राज्य अपने पूर्ण आवेग में था जो “जियो और जीने दो” के आदर्ष से गिरकर जोर-जबरदस्ती और जुल्म पर विष्वास रखने वाला था। मुगल बादषाह औरंगजेब, जिसने तलवार के बल द्वारा इस्लाम फैलाने और हिन्दू धर्म का पूर्णतः विनाष करने का बीड़ा उठाया था। केवल हिन्दू ही नहीं बल्कि षिया मुसलमान भी, जो औरंगजेब के अपने मजहब सुन्नी के विरोधी थे, हिन्दुओं की ही भांति सैंकड़ों की गिनती में कत्ल किये जाते थे।
हिन्दू माताओं-पिताओं से उनकी कुंवारी कन्यायें, भाईयों से उनकी जवान बहनें, पुरूशों से उनकी पतिव्रत पत्नियों को जोर-जबरदस्ती छीन लिया जाता था। इतने अत्याचारों ने हिंदूओं को, जो पहले से ही हजारों वर्शों की गुलामी के कारण कायर हो चुके थे, और भी अधिक भीरू बना दिया था। ऐसे भयानक समय में मुगलराज के विरूद्व बोलना किसी छोटे-मोटे योद्धा के बस की बात नहीं थी।
वहीं दूसरी ओर, गुरू गोबिन्द सिंह जी की ओर देखें। आयु मात्र 10 वर्श, न कोई सलाहकार, न कोई सम्बन्धी मददगार, न कोई फौज या लष्कर, न किला, न रियासत और न ही कोई और साजो-सामान। टक्कर लेने हेतु एक बड़ी ताकत का मालिक कट्टर औरंगजेब, दूसरी ओर से पहाड़ी हिन्दू राजपूत राजा, तीसरी और घर के भेदी जो दुष्मनों को अंदर के भेद दे रहे थे और चैथी और चारो ओर बिखरे हुए बहुत से डरे हुए लोग जो उनकी राह में रोड़े अटकाने को आतुर थे।
परन्तु सतगुरू जी ने समझ लिया था कि वीर पुरूश कहीं बाहर से नहीं आयेंगे अपितु इन्हीं भीरू बन चुके लोगों में से ऐर्से अिद्वतीय योद्धा निकलेंगे जिनकी वीरता के समक्ष समस्त मुगल फौज छोटी सिद्ध होगी। उन्हीं लोगों ने ही जो बिल्कुल निर्बल हो चुके थे, गुरू के अमृत की षक्ति के कारण बड़े-बड़े मुगल सेनापतियों को पछाड़ दिया। उन्हीं लोगों के बीच से ही बाबा दीप सिंह, बाबा जस्सा सिंह की तरह अनेकों सूरमाओं ने रणभूमि में दुष्मनों को अपने युद्ध के जौहर दिखाये। चमकौर की एक छोटी सी हवेली में मात्र 40 सिक्खों ने दस लाख मुगल सेना से जो टक्कर ली, ऐसी मिसाल दुनियां में कहीं नहीं मिलती।
सवा लाख से एक लड़ाऊं।। तबी गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।।
इस वाक्य को कलगीधर पातषाह ने सारी दुनियां के समक्ष सूरज की भांति रोषन किया। औरंगजेब को भेजे ख़त “जफरनामा” में सतिगुरू जी ने चमकौर की इस अद्वितीय कारनामे का इस प्रकार जिक्र किया हैः-
गुरसनह चिह कारे कुनद चिहल नर।।
कि दह लख बरायद बरो-बे-ख़बरा।।19।।
हमाखिर चिर मरदी? खुनद कारज़ार।।
कि बर चिहल तन आयदष बे-षुमार।।41।।
भाव, भूखे और कमजोर हालात में चालीस आदमी क्या कर सकते हैं, जो उन पर अनगिनत फौज टूट पड़े।।19।।
आखिर युद्ध में निरी बहादुरी क्या कर सकती है, जो चालीस आदमियों पर बेइंतहा फौज हमला कर दे।।41।।
महाभारत का युद्ध समस्त संसार में वीरतापूर्ण गाथाओं के लिए प्रसिद्ध है। परन्तु उस में पांडवों का जीतना इतनी अनोखी बात नहीं थी। श्री कृश्ण की भांति सलाहकार, अर्जुन जैसे नीतिविद्व, भीम जैसे बली, लाखों और मददगार, घोड़े, हाथी और पूरी सेना उनके साथ थी। मुकाबला केवल अपने ही भाईयों कौरवों के साथ, परन्तु हम अभी देख ही आये हैं कि गुरू गोबिन्द सिंह जी के समय देष की कितनी भयानक हालत थी। सतिगुरू जी के साथ न कोई अनुभवी सहायक, न कोई साजो-सामान, न बड़ी सेना। मात्र परमेष्वर पर पूर्ण भरोसा रखकर हौंसले और धीरज के साथ मुगलों जैसी कट्टर अनन्त सेना का मुकाबला करके, उन पर विजय प्राप्त करनी, दुनियां के इतिहास में केवल गुरू गोबिन्द सिंह जी का ही काम था।
एक अपूर्व योद्धा होने के साथ-साथ गुरू गोबिन्द सिंह जी के भीतर कुर्बानी, धैर्य और ज्ञान कूट-कूटकर भरा था। मात्र 10 वर्श की आयु में अपने पिता को कुर्बानी हेतु भेजना, अपने हाथों अपने दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह को चमकौर के युद्ध के लिए भेजना, दो छोटे पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह के दीवारों में चिनवाये जाने के बाद आंखों से आंसू की एक बूंद न छलकना, दुनियां के इतिहास में ऐसी मिसाल कहीं नहीं मिलती। अपना सर्वस्व वार देने के बाद सतिगुरू जी औरंगजेब को “ज़फरनामा” लिखकर भेजते हैं जिसे पढ़कर उनकी बेमिसाल भक्ति और षक्ति प्रकट होती है। “जफ़रनामा” में गुरू साहिब कहते हैं कि हुमा पक्षी की परछाई के नीचे जो कोई आ जाये तो उस पर अन्य कोई पंछी वार नहीं कर सकता, मैं वाहेगुरू के आसरे के नीचे हूं, मेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जो मनुश्य षेर की षरण में आ जाता है, उसके आसपास भेड़-बकरी और हिरन आदि फटक भी नहीं सकते। क्या हुआ जो तूने मेरे चार बच्चों को कत्ल कर दिया? कुण्डलिया सांप (खालसा) तो बचा ही है। ये तेरी कैसी बहादुरी है कि चिंगारी बुझा दी। इस तरह तो तूने (क्रांति की) आग को और अधिक भड़का दिया है। यदि वाहेगुरू मित्र है तो वैरी कुछ नहीं बिगाड़ सकता, चाहे वह सौ गुना वैर कमाता फिरे। चाहे वैरी हजार वैर भी करे तो भी उसका एक बाल तक बांका नहीं कर सकता।
वीरता और कुर्बानी के साथ गुरू साहिब की आत्मिक उदारता इतिहास में अनेकों स्थानों पर देखने को मिलती है। रणभूमि में कृपाण पकड़ कर भी गुरू गोबिन्द सिंह जी ने गुरू नानक साहिब द्वारा दिखाये आदर्ष अपने सामने रखे। युद्ध में कभी किसी प्रकार का धोखा या चालाकी का प्रयोग नहीं किया। पहाड़ी राजा गुरू साहिब के जानी दुष्मन थे, भंगाड़ीं के युद्ध में उनकी नीयत साफ सामने आ गई थी परन्तु जब कभी उन राजाओं के ऊपर मुगल हाकिमों की ओर से अन्याय हुआ, सतिगुरू जी ने सदा उनका साथ दिया। गुरू साहिब के पास षिकायत हुई कि भाई कन्हैया जी रणभूमि में सिक्ख सेना के साथ-साथ दुष्मन सेना के घायलों को भी पानी पिलाते थे, सतिगुरू जी भाई कन्हैया जी इस निरवैरता को देख अत्यन्त प्रसन्न हुये। उनका वैर किसी हिन्दू या मुस्लिम के साथ नहीं था। इसी निरवैरता के चलते गनी खाँ जैसे कई मुस्लिम गुरू साहिब की ओर खिचे चले आये। सतिगुरू जी बिना किसी जाति-पाति का विचार किये सदैव सत्य पक्ष के सहायक थे और अधर्म के विरोधी थे। अपना यह आदर्ष वह स्पश्ट षब्दों में इस प्रकार कहते हैंः-
याही काज धरा हम जनमं।।
समझ लेहु साधु सभ मनमं।।
धरम चलावन संत उबारन।।
दुश्ट सभन को मूल उपारन।।43।। (बचितर नाटक, अधिः6)
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