Menu
blogid : 15302 postid : 808142

चींटी के पग

Voice of Soul
Voice of Soul
  • 69 Posts
  • 107 Comments

बरसात का मौसम था, एक नन्ही ही चींटी न जाने कहां से जमीन पर चलती दिखी। इधर-उधर अकेली दौड़ती न जाने क्या ढूंढ रही थी। षायद अन्य चीटिंयों की उस पंक्ति से बिछड़ गई थी। जो सीधे कतारबद्ध अपने पूरे साजो-सामान लेकर अपने घर की ओर चलती दिखती हैं। यह सब देख एकाएक मैं किसी गहन चिंतन में डूब गया। सोचने लगा कि हम भी तो उस चीटीं के ही समान हैं जो कभी कतारबद्ध होकर आंख बंद किये चलते हैं और जब कभी उस कतार से भटक, बिछड़ने का समय आता है तब इधर-उधर बिना किसी दृश्टि के भटकने लगते हैं।
वास्तव में इन दोनों ही स्थितियों में हमें दुख और पीड़ा के जिस मार्ग से गुजरना पड़ता है, वह जन्म-जन्मांतरों से चलता हुआ एक ऐसा क्रम है जिसे तोड़ पाना हमारे स्वयं के सामथ्र्य से बाहर की बात है। तो फिर इस पीड़ा से मुक्ति का क्या उपाय है? इसके उत्तर हेतु हमें थोड़ा गहराई से समझना होगा कि वास्तव में इस दुखपूर्ण स्थिति का निर्माण कैसे हुआ और इसे उत्पन्न करने का वास्तविक कारण क्या है? ऊपर से देखने पर बहुत से कारण दिखेंगे। विपरित परिस्थितियां, विरोधी विचारधाराएं, मित्र-संबंधी और अन्य बाहरी कारण किन्तु जैसे-जैसे परत-दर-परत भीतर और भीतर जाते हैं तो अंत में हम स्वयं को अकेला पाते हैं और एक के बाद एक बहुत से विचार। कुछ अच्छे, कुछ बुरे, कुछ प्रकाष के, कुछ अंधकार के, इन सबके मध्य कोई ऐसी षक्ति जिसे हम “मैं” कहते हैं। यही मैं समस्त दुखपूर्ण स्थितियों का निर्माता एवं कारण हैं। तो फिर किस प्रकार हम “मैं” (अहम्) को समाप्त कर सकते हैं? जैसा कि सर्वविदित है प्रत्येक प्राणी जन्म के साथ ही “मैं” को अपने साथ लेकर आता है जो जीव मात्र के लिए जीवन के लिए अत्यन्त आवष्यक भी है। अहम् के कारण ही संसार चलायमान है। अहम् के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति जीवित है। इसके कारण ही सम्बन्ध जीवित हैं। तो फिर प्रष्न यह उठता है कि यदि अहम् इतना ही आवष्यक है और दुख का कारण भी है तो फिर इसे समाप्त किस प्रकार किया जा सकता है? अवष्य किया जा सकता है। अहम् को हम मुख्यतः दो भागों में विभक्त कर सकते हैं – स्वाभिमान एवं अभिमान।
स्वाभिमान से तात्पर्य उस स्थिति एवं विचार से है जो हमें धरातल से नभ की ओर ले जाती है। बिना किसी स्वार्थ के किये जाने वाले उस भाव को हम स्वाभिमान कह सकते हैं जिसके कारण हदय आनंद से तरंगित हो उठे। स्वाभिमान किसी को आघातित न करके आनंदपूर्ण उत्साह का सृजन करता है। इसके विपरित अभिमान उस स्थिति एवं विचार से है जो सदा मनुश्य को प्रतिषोध और नकारात्मकता से भर देता है।
फिर जैसे ही वह चींटी सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे बिना कोई जल्दी किये चलने लगती है। बहुत ही जल्दी वह अपने घर तक पहुंच जाती है। इसी प्रकार मनुश्य को भी किसी चींटी की ही भांति नन्हें-नन्हें कदम बड़ी ही सावधानीपूर्वक रखकर अपने भीतर के उन मागों को खोजना होगा जिन से कभी वह गुजरा था। फिर पुनः उन भूली बिसरी राहों में एक-एक कदम बड़े ही आराम से उस ओर चलना होगा, जहां उसका वास्तविक घर है, और वहीं प्रत्येक अषांति, प्रत्येक दुख से मुक्ति का उपाय। जिस तक पहुंच जाना प्रत्येक मनुश्य का धर्म भी है और जीवन का लक्ष्य भी।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh