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देषभक्ति के रंग में रंगा भारतवर्ष जहां अक्सर कुछ विषेष अवसरों पर देषभक्तिपूर्ण गीत सुनने को मिल जाते हैं जिन्हें सुनकर तन-मन में जोष एवं उत्साह की लहर सी दौड़ पड़ती है। यह लहर मात्र 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर को ही, न जाने कहां से उभर आती है। जो पूरे वर्षभर के कामों के बीच दबी पड़ी थी, जिसे हम सदैव की भांति भूले बैठे थे। जैसा कि भूलने की प्रवृत्ति पर तो यहां की जनता का जन्मसिद्ध अधिकार है। सुबह से लेकर रात को सोने तक न जाने कितनी आवष्यक बातें हम भूल जाते है और कितनी ही अन्य बातों को बड़े ही ध्यान में रखकर उस पर बड़ी कुषलतापूर्वक कार्य करते हैं। सुबह जल्दी उठना, साफ-सफाई पर ध्यान रखना, तहजीब से बात करना, सच्चाई और ईमानदारी पूर्ण भाव से अपने समस्त कार्य करना अक्सर हम भूले ही रहते हैं। इसके साथ-साथ जो आदतें हमारे मन मन्दिर में सदैव किसी मूर्ति के समान एकदम सीधी खड़ी मिलती है, वह अन्य किसी की दृष्टि में सही न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है, कम से कम थोड़ी देर आराम की नींद तो देता ही है। अच्छे दिन आयेंगे, जरूर आयेंगे। कब आयेंगे? जब-जब यह प्रष्न मन में उठता है तो फिर अपने उसी पुराने अंदाज में धीरे से यही शब्द निकलते है अगले 40-50 सालों में तो आ ही जायेंगे। अभी बहुत समय है, थोड़ा और आराम कर लेना बेहतर है। जब और बड़े-बड़े धुरंधर विकास के लिए बैठे हैं तो फिर हमें कुछ करने की आवष्यकता ही क्या है?
स्थिति और भी अधिक तब विकट हो जाती है जब हमारी इस भूलने की आदत और आराम पसंदगी का लाभ कुछेक लोग उठाने लगते हैं। चुनावी माहौल में कई दिग्गज नेता प्रकट होते है तो कई छुटभैये नेता भी अपने-अपने बिलों से बाहर निकल अपने फन फैला उठते हैं। उस माहौल में इन फनों से तब हमेषा की भांति विष नहीं निकलता। तब तो जैसे दुनियां ही बदल जाती है। जिस देष में कभी दूध की नदियां बहा करती थी, तब शराब, शबाब और कबाब की तो जैसे बाढ़ ही आ जाती है। ऐसे माहौल में तब कौन कह सकता है कि भारत अभी विकासषील देष है। तब हमारे जैसे ही लोग जो अपने भूलने की आदत के खिलाड़ी है। सब कुछ भूलकर उन्हीं की बीन में नाचने लगते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, बढ़ती आपराधिक गतिविधियां, बिजली, पानी, पेट्रोल, डीजल, किराये-भाड़े, सड़क, नालियां और ऐसी अनेकों समस्याओं का निवारण जो पिछले कई वर्षों से नहीं हुआ। किसके कारण नहीं हुआ। सब कुछ जानते बूझते भी, शराब और कबाब की महक के सामने भूल जाते हैं कि अच्छे दिन भी आने हैं, कब आने हैं, इसकी कौन चिन्ता करता है। अपने तो उसी समय अच्छे दिन ही समझो। जब बड़े आराम से अपने आप सब कुछ मुफ्त मिल रहा हो। लेकिन भाई! आजकल कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता। हर बात की एक कीमत चुकानी होती है जो हम चुकाते भी हैं। लेकिन क्या करें, हम भी इंसान ही तो हैं और गलती इंसानों से हो ही जाया करती है। बस थोड़ा सा भूल जाते हैं तो कोई गुनाह तो नहीं…..??
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