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बच्चों को देखकर एकाएक मन पूर्णतः ऊर्जा से भर जाता है। छोटे-छोटे बच्चे उन्मुक्त दौड़ते हुए, मुस्कुराते हुए, वैर-भावना से रहित, बिना किसी चिन्ता के अलग-अलग प्रकार के खेलों का सृजन कर खेलते बच्चे। बच्चों की रचनात्मकता और सृजन को देखें तो बड़े-बड़े लोग भी दांतों तले अंगुलियां दबा लें। यह निष्चित ही बच्चों के रहन-सहन, पालन-पोषण और आसपास के माहौल पर पूरी तरह निर्भर करता है कि उनमें किस प्रकार की सोच का निर्माण हो, जो आने वाले भविष्य को रचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाये। सभी के जीवन में बचपन के अनेकों-अनेक ऐसे अनुभव होते हैं जिनके कारण उनका आज का व्यक्तित्व है। यदि चाहें तो एक बार अवष्य सोचें कि जो हम आज हैं वह हमारे बचपन से लेकर आज तक के अनेकों अनुभवों के कारण हैं।
बच्चों का खेलों के प्रति लगाव बड़ी ही सामान्य बात है। जो दुनियां के सभी बच्चों को जोड़ती है। खेल बेषक भिन्न-भिन्न अवष्य हो सकते हैं लेकिन उनमें मूलरूप से एक समानता अवष्य होती है और वह है सृजनात्मकता। बच्चों का मन एक कोरे पन्ने की तरह होता है जिसपर जैसा चाहे चित्र बनाइये। यह चित्र ही उनके चरित्र का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बच्चों की सृजनात्मकता की बात करें तो कुछ वर्ष पहले का एक वाक्या याद आता है। कुछ समय पूर्व मैं किसी पारिवारिक कार्यक्रम में गया था। ग्रामीण परिवेष में आते ही लम्बे-चैड़े खेतों को देखकर उनकी विषालता से मन विस्मित हो उठता। क्योंकि बचपन से शहर में रहने के कारण अधिक बड़े खुले खेत देखने को नहीं मिलते। हर ओर हरियाली और अत्यंत ही धीमी गति से चलती गांव की जिन्दगी देखकर मन में ठहराव सा आने लगता है। अब इसे चाहे क्षण भर के लिए उठने वाला भाव कह लें या फिर भीतर किसी कोने में छिपी वह आध्यात्मिक आवाज। जिसे बड़ी सरलता से गांव के खुले खेत, पक्षियों और मुक्त वातावरण में अनुभव किया जा सकता है। इस अनुभव को मात्र एक भाव न मानकर उसे परिपूर्णता से संजो लेने पर वह शांति सदा सर्वदा के लिए मन में बसकर मन को सदा आनंदित करती रहती है।
गांव में पहुंचते ही चहल-पहल दिखनी प्रारम्भ हो गई। सिख धर्म में सभी कार्य गुरूद्वारे में ही सम्पन्न किये जाते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले सभी कार्यो में अनेकों अंधविष्वासों को छोड़ मात्र गुरूबाणी का ही आसरा लिया जाता है जो सिक्खी को अन्य धर्मों की अपेक्षा अलग ही स्थान पर खड़ा करती है। गुरूद्वारे में कार्यक्रम के समापन के बाद वापिस घर आकर दिन का खाना खाने के बाद थोड़ा आराम कर शाम को यूंही चहलकदमी करने लगा। तभी नजर थोड़ी दूर खेलते बच्चों पर पड़ी जो किसी खाली कमरे में खेल रहे थे। न जाने कहां से मन में आया कि चुपचाप जाकर देखा जाये कि बच्चे आखिर क्या खेल खेलते हैं? पीछे की खिड़की के पास चुपचाप जाकर देखने लगा। अंदर पांच-छः बच्चे खेल रहे थे। उनमें से एक सोफे में बैठकर पाठ कर रहा था। अन्य सभी बच्चे नीचे बैठे सुन रहे थे। फिर वह ठीक उसी प्रकार करते गये जैसे किसी गुरूद्वारे में किया जाता है। पाठ के बाद अरदास हुई जिसमें सभी बच्चे हाथ जोड़कर खड़े हुए। फिर अंत में उन्होंने प्रसाद का वितरण किया। जो कि उन्होंने पहले से ही घर से मिठाईयां, टाॅफियां, बिस्कुट इत्यादि लाकर रखा हुआ था। वह सब बांटकर वह सब खुषी-खुषी फिर कुछ और खेल खेलने लगे।
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