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वैसे तो सृष्टि में उपस्थित प्रत्येक जीव का धर्म उसी समय निर्धारित हो गया था जब ब्रह्म ने ब्रह्मांड की रचना की। प्रत्येक सजीव एवं निर्जीव वस्तु का धर्म प्रकृति को सुचारू रूप से चलाने का माध्यम बना जो वास्तव में जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक भी है। सृष्टि में विद्यमान समस्त पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े और लाखों-करोड़ों प्रकार के जीव जो भली प्रकार से प्रकृति द्वारा निर्धारित अपने-अपने धर्म का निर्वहन करते हैं। जिनके मध्य मनुष्य एकमात्र ऐसा जीव है जिसने प्रकृति द्वारा निर्धारित धर्म को अपनी बुद्धिमता के मद मे चूर होकर न मानते हुए, अलग-अलग अनेकों धर्मों की रचना कर दी। भले ही प्रारम्भ में उनके उद्देश्य भले थे लेकिन प्रकृति के विरूद्व चलने के कारण उसका परिणाम वही हुआ जो वास्तव में होना था। मेरी धोती तेरी धोती से अधिक सफेद क्यों…..? ऐसी बातें सारे फसाद की जड़ बन गई। जिसे कभी मनुष्य ने यह सोचकर प्रारम्भ किया था कि अब वह सम्पूर्ण जीवन चैन की बंसी बजायेगा लेकिन ऐसा हो न सका। होता भी क्यों? बुद्धिमता को जो मनुष्य को सहज मिली है। जिसे जिस प्रकार उसे प्रयोग करना था, न कर सका। जिसके कारण अनेकों-अनेक धर्म सामने आने लगे।
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सर्वप्रथम यदि देखा जाये तो जो धर्म प्रकृति के सर्वथा निकट हो वही मनुष्य के लिए उचित है। तो समाज के उपस्थित कौन सा धर्म प्रकृति के सर्वथा निकट जान पड़ता है? यह विचार योग्य प्रश्न है। सभी में कुछ बाते ऐसी हैं जो प्रकृति के निकट हैं परन्तु जो उसे प्रकृति से दूर ले जाती हैं ऐसी बहुत सारी बातें भी इन सबमें बड़ी आसानी से मिल जाती हैं। जिस कारण से मनुष्य सदैव अनन्त दुखों के घेरे में घिरकर अपनी पूरी जिन्दगी असहनीय पीड़ा के बीच बिताने को विवश हो उठता है। भले ही ऊपर से देखने पर वह सुखी जान पड़े परन्तु यदि उसके मन के भीतर जरा भी झांक कर देखें तो हर हदय में एक नर्क का प्रतिबिम्ब उनके हाव-भाव और कर्मों से साफ झलक उठते हैं। लालच, ईष्र्या, क्रोध, अहंकारपूर्ण व्यवहार व्यक्ति की आंतरिक स्थिति को प्रस्तुत कर गवाही देता है कि अभी तक तो उसे धर्म का मर्म न मिल सका। जिसकी खोज मनुष्य आदिकाल से कर रहा है। अनेकों को मर्म मिल भी चुका है, अनेकों प्राप्त कर रहे हैं और अनेकों प्राप्त करेंगे किन्तु उन अनेकों की संख्या भी इतनी दुर्लभ है कि उन्हें ढूंढ पाना जितना सरल है, उतना ही कठिन भी! सरल इसलिए कि वह कहीं और नहीं हमारे ही आसपास प्रकृति के अत्यन्त निकट ही उपस्थित हैं और कठिन इसलिए कि अभी तक दृष्टि इस योग्य न हो सकी कि वह सामने होते हुए भी दिख सकें। वास्तव में जीवन ही एक ऐसी पहेली है जिसे कोई सुलझा ले तो एक क्षण भी अधिक और न सुलझे तो जन्म-जन्मांतर भी कम पड़ जायें।
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धर्म एक दृष्टि है – या यूं कहें जैसा हम देखते हैं, चाहते हैं और करते हैं वही हमारा धर्म। इसका अर्थ यह हुआ जो हम चाहते और करते हैं, वही हमारा धर्म है अर्थात् धर्म हमारी इच्छा है जो सोच द्वारा निर्मित है। सर्वप्रथम जब मनुष्य कुछ सोचता है कि उसे वास्तव में कैसा होना है अपना जीवन किस प्रकार व्यतीत करना है, किस प्रकार जीवन के एकमात्र सत्य मृत्यु को आनन्दपूर्वक प्राप्त करना है और उससे भी आगे…..
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सोच के पश्चात वह इच्छा में परिवर्तित होकर कर्म द्वारा निर्धारित हो जाती है। जिसके फल उसे किये गये कर्मों के अनुसार मिल ही जाते हैं। जैसे कि गीता में श्रीकृष्ण युद्धभूमि में अर्जुन से कहते हैं कि इस समय तुम्हारा धर्म युद्ध लड़ना है इसलिए तुम वीर क्षत्रिय की भांति युद्ध में लड़ों। फल की इच्छा मत रखो मात्र कर्म करो। यही तुम्हारा धर्म है। बिल्कुल सही ही तो कहा। यह बात मात्र अर्जुन के लिए नहीं, सम्पूर्ण मानव जाति के लिए गुरूमंत्र है कि अपने कर्म निष्काम भाव से करो। फल तो स्वयं ही मिल जायेगा। जैसी कामना, वैसा फल। इसका अर्थ यह नहीं कि जो व्यक्ति बुरे भावों के साथ लालच, स्वार्थ, ईष्र्या, क्रोध के वशीभूत होकर अच्छा सोचते हुए कर्म करेगा उसे अच्छे फल की प्राप्ति होगी? कदापि नहीं। क्योंकि बुरे भावों के साथ किये गये अच्छे कार्य भी अन्ततः फल बुरे ही देते हैं और ऐसा भी सृष्टि का नियम है कि यदि भाव सात्विक है और कर्म बाहर से दिखने में औरों को बुरे प्रतीत होते हों परन्तु उसके फल सदैव उत्तम ही होंगे क्योंकि सात्विक भाव से बुरा कर्म होना ही असंभव है। यह मात्र हमारी दृष्टि और सोच ही तो है जिसे हमें ईश्वर द्वारा प्रदत्त धर्म द्वारा स्वच्छ करना है जिससे व्यक्ति को ऐसी निर्मल दृष्टि प्राप्त हो जाती है जिससे वह स्वयं को और सम्पूर्ण सृष्टि में एकरस होकर अनेकों ऐसे अनुभवों से गुजरता हुआ ब्रह्म हो जाता है जिसका मार्ग अत्यन्त ही आनन्दमयी और सम्पूर्ण है। जो वास्तव में जीवन का लक्ष्य भी…..
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