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भारत एक लोकतांत्रिक देष है, यहां अनेकों धर्म, वर्ग और नस्ल के लोग अनेकों विचारधाराओं के साथ एक साथ रहते हैं। अन्य देषों की तुलना में भारत में जनसांख्यिकी विविधता के कारण यहां की शासन व्यवस्था सर्वाधिक पेचिदा है क्योंकि विविधता के कारण सभी को एक साथ संतुष्ट कर पाना अत्यन्त कठिन है। इसलिए जब भारत का लोकतंत्र बनाया गया तब उसमें धर्मनिरपेक्षता का गुण भी डाल दिया गया। जिसमें यह बात स्पष्ट रूप से इंगित है कि राज्य किसी भी धर्म विषेष के साथ पक्षपात नहीं करेगा अर्थात देष का कोई धर्म नहीं होगा। जैसे विष्व में कई ऐसे अनेकों देष हैं जहां उनका कोई न कोई धर्मविषेष होता है जैसे पाकिस्तान, संयुक्त राज्य अमीरात, इरान, कुवैत, इत्यादि।
भारतीय राजनीति वर्तमान में धर्म के आधार पर हो रही है। एक पार्टी का एजेण्डा किसी धर्म विषेष के लाभों के लिए है तो दूसरी पार्टी का किसी अन्य वर्ग की ओर। लेकिन इस बात कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किसे लाभ पहुंचाना चाहता है और किसे हानि? यहां तो मात्र अपनी-अपनी रोटियां सेकने का खेल मात्र है। जान और माल की हानि तो सदैव जनता की ही होती है। जहां इन्हें अलग-अलग वर्ग के लोगों को एकता के सूत्र में पिरोया जाना चाहिए वहीं मन्दिर-मस्जिद जैसे मामले राजनीति के गलियारों में उछाले जाते हैं जिनका न किसी धर्म से संबंध है और न वर्ग से। इसका संबंध जहां तक समझ आता है सीधा राजनीति से प्रेरित है।
अयोध्या में राम मंदिर बनना चाहिए जो आज से हजारों वर्ष पहले श्रीरामचन्द्र जी की जन्मभूमि थी। या फिर करीब 600 सालों से विद्यमान बाबरी मस्जिद। इसका मसला न्यायालय में सालों से लम्बित है और जिसका निर्णय कर पाना भी अत्यन्त कठिन। क्योंकि ओछी राजनीति का अंजाम सभी जानते हैं। फैंसला चाहे किसी भी पक्ष की ओर हो, इसका भयानक अंजाम तो आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा। जहां आम वर्ग के व्यक्ति को दो जून की रोटी कमाकर अपने परिवार को पालने की अधिक चिंता होती है। सुबह कमाया और शाम को खाया जैसी स्थिति में जब राजनीति के भयंकर अंजाम सामने आते हैं तब प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति और कभी कोई खास वर्ग के व्यक्तियों को नुकसान उठाना पड़ता है।
जहां देष की सभी पार्टियों का मुख्य मुद्दा देष में विद्यमान आम जनता के विकास का होना चाहिए लेकिन व्यवहारिक रूप में कुछ और ही देखने को मिलता है। सत्ता में आने के बाद विकास के मुद्दे तो पीछे रह जाते हैं और अनेकों ऐसे मुद्दे सामने आने लगते हैं जिनमें किसी वर्ग विषेष की मान्यतायें देष की समस्त जनता के विकास से ऊपर उठ जाती हैं। कभी मन्दिर-मस्जिद, कभी गाय, कभी राष्ट्रध्वज, कभी वंदेमातरम, कभी प्रेमी युगल, कभी तीन तलाक, कभी सर्जिकल स्ट्राईक, कभी आरक्षण इत्यादि-इत्यादि अनेकों मुद्दे जिनका विकास और आम जनता के लाभ का कोई लेना देना नहीं, इनसे मात्र सामाजिक वातावरण में तनाव और असंतोष अधिक दिखाई देने लगता है।
विकास के मुद्दों में षिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, कृषि, पर्यावरण और व्यापार आदि होना चाहिए। जिसमें सभी वर्गों के लिए एकदम खुला बाजार उपलब्ध कराना होगा जिसमें कोई भी बिना किसी भेदभाव के अपनी योग्यता के आधार आगे बढ़ सके। तब कभी देष का विकास हो पाना संभव होगा।
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